अ॒ग्निं नरो॒ दीधि॑तिभिर॒रण्यो॒र्हस्त॑च्युती जनयन्त प्रश॒स्तम्। दू॒रे॒दृशं॑ गृ॒हप॑तिमथ॒र्युम् ॥१॥
agniṁ naro dīdhitibhir araṇyor hastacyutī janayanta praśastam | dūredṛśaṁ gṛhapatim atharyum ||
अ॒ग्निम्। नरः॑। दीधि॑तिऽभिः। अ॒रण्योः॑। हस्त॑ऽच्युती। ज॒न॒य॒न्त॒। प्र॒ऽश॒स्तम्। दू॒रे॒ऽदृश॑म्। गृ॒हऽप॑तिम्। अ॒थ॒र्युम् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सातवें मण्डल के प्रथम सूक्त का आरम्भ है, इसके पहिले मन्त्र में मनुष्यों को विद्युत् अग्नि कैसे उत्पन्न करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ नरैः कथं विद्युदुत्पादनीयेत्याह ॥
हे नरो विद्वांसो ! यथा भवन्तो दीधितिभिर्हस्तच्युती अरण्योर्दूरे दृशमग्निं जनयन्त तथाऽथर्युं गृहपतिं प्रशस्तं कुर्वन्तु ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी, विद्वान, श्रोता, उपदेशक, ईश्वर राजा, प्रजा यांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.